केजरीवाल जनता की नब्ज पहचानने में अधिक कामयाब रहे
दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जोरदार जीत ने जहां यह साबित किया कि अरविंद केजरीवाल जनता की नब्ज कहीं अच्छे से पहचानने में समर्थ रहे वहीं यह भी कि उनके मुकाबले दोनों राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस कुछ नहीं कर सके। जिस दिल्ली पर कांग्रेस ने 15 साल शासन किया वहां वह लगातार दूसरी बार अपना खाता भी नहीं खोल सकी। नतीजे यही बताते हैं कि दिल्ली के लोगों का कांग्रेस से मोहभंग हो गया है और वे बेहतर विकल्प के रूप में आम आदमी पार्टी को पसंद कर रहे है।नि:संदेह आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की जनता को पानी, बिजली के साथ महिलाओं को बस यात्रा की सुविधा मुफ्त देकर उसे अपनी ओर आकर्षित किया, लेकिन यह कहना ठीक नहीं होगा कि वह केवल इसी के बलबूते चुनाव जीती।करीब आठ महीने पहले दिल्ली की सभी सात लोकसभा सीटों पर आम आदमी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा था। शायद इसी हार के बाद आम आदमी पार्टी अपनी कमियों को दूर करने में जुटी और अपनी पूरी मशीनरी के साथ बूथ स्तर तक सक्रिय हुई। ऐसी सक्रियता न तो भाजपा दिखा सकी और न ही कांग्रेस।कांग्रेस दिल्ली में ऐसा कोई मुद्दा नहीं उभार सकी जो जनता का ध्यान खींच सकता। रही-सही कसर कांग्रेस नेताओं के अनमने ढंग से किए गए चुनाव प्रचार ने पूरी कर दी। राहुल और प्रियंका चुनाव प्रचार करने तब उतरे जब वह खत्म होने वाला था। लगता है वे चुनाव प्रचार के नाम पर केवल खानापूरी करना चाह रहे थे और उनका असली इरादा भाजपा की हार सुनिश्चित करना था। दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चोपड़ा ने कोशिश तो बहुत की, लेकिन वह चुनाव प्रचार को गति नहीं दे सके।नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस का वोट प्रतिशत तो गिरा ही, उसके 60 से अधिक उम्मीदवारों की जमानत भी जब्त हो गई। इस शर्मनाक पराजय के बाद कांग्रेस में कलह मची है, लेकिन यह कहना कठिन है कि पार्टी की रीति-नीति में कोई व्यापक बदलाव होगा। इसका संकेत इससे मिलता है कि कांग्रेस के कुछ नेता हार का ठीकरा उन शीला दीक्षित पर फोड़ रहे हैं जिन्होंने दिल्ली को संवारा।कांग्रेसी नेता बदलाव तो चाहते हैं, लेकिन गांधी परिवार पर अपनी निर्भरता छोड़ने को तैयार नहीं। गांधी परिवार पर निर्भर कांग्रेस के पास कोई एजेंडा नहीं दिखता, सिवाय प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के साथ भाजपा और संघ पर कीचड़ उछालने के। लगता है गांधी परिवार और खासकर राहुल गांधी यह स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि सत्ता उनसे दूर चली गई है। उनका व्यवहार उस राजकुमार जैसा है जिसका राजपाट छिन गया हो।दिल्ली चुनाव में कांग्रेस को ज्यादा उम्मीद नहीं थी, लेकिन भाजपा सत्ता में आने के लिए कमर कसे हुए थी। बावजूद इसके वह सत्ता से तो दूर रही ही, उसके विधायकों की संख्या दहाई तक भी नहीं पहुंच सकी। दिल्ली में हार के पहले महाराष्ट्र और झारखंड उसके हाथ से निकल चुके हैं और हरियाणा में उसे सरकार बनाने के लिए दुष्यंत चौटाला का सहारा लेना पड़ा।
दिल्ली में भाजपा के कमजोर प्रदर्शन के कई कारण दिखते हैं और उनमें से कुछ का उल्लेख गृहमंत्री अमित शाह ने किया भी। उनके अनुसार कुछ नेताओं और खासकर अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा और कपिल मिश्रा के उत्तेजक बयान पार्टी पर भारी पड़े। भाजपा ने शाहीन बाग धरने को भी मुद्दा बनाया, लेकिन वह भी कारगर नहीं रहा। दिल्ली की जनता ने इसे न तो चुनावी मुद्दे के रूप में लिया और न र्ही ंहदू-मुस्लिम मसले के तौर पर। नि:संदेह इसका यह मतलब भी नहीं निकाला जा सकता कि दिल्ली की जनता नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ है।
दिल्ली में भाजपा की एक कमजोरी यह भी रही कि वह अपने किसी नेता को मुख्यमंत्री के दावेदार के तौर पर पेश नहीं कर सकी। यह अजीब है कि वह पांच साल में एक ऐसा नेता तैयार नहीं कर सकी जो केजरीवाल को चुनौती देने में सक्षम दिखता।
दिल्ली भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी पार्टी के अन्य सभी नेताओं को अपने पीछे एकजुट नहीं कर सके। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि दिल्ली भाजपा के नेता गुटबाजी के शिकार थे और मुख्यमंत्री के लिए किसी चेहरे का चयन न किए जाने के बाद भी यह गुटबाजी दूर नहीं हो सकी।
भाजपा को यह भी समझ आना चाहिए कि राज्यों के चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर नहीं लड़े जा सकते और विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय मसले एक सीमा तक ही कारगर होते हैं।
दिल्ली नौकरी-पेशा वालों का शहर है। बड़ी संख्या में व्यापारी वर्ग भाजपा का परंपरागत मतदाता है, लेकिन शायद वह थमी हुई अर्थव्यवस्था के चलते परेशान है और उसकी यह परेशानी भाजपा पर भारी पड़ी।
दिल्ली के चुनाव नतीजों के बाद भाजपा पर आगामी विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करने का दबाव बढ़ गया है। इस वर्ष के आखिर में बिहार और अगले वर्ष बंगाल विधानसभा के चुनाव होने हैं। अभी दोनों चुनावों में समय है, लेकिन भाजपा को अपनी कमजोरियों को दूर करने पर तो ध्यान देना ही होगा। इसके साथ ही उसे इसकी भी चिंता करनी होगी कि तब तक अर्थव्यवस्था की हालत सुधर जाए।
नि:संदेह विधानसभा चुनावों में आम जनता प्रधानमंत्री मोदी की कर्मठ और साहसिक फैसले लेने में सक्षम नेता वाली छवि पर मोहित होती है, लेकिन वह यह भी जानती है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर तो कोई और ही बैठेगा। दिल्ली में भाजपा का वनवास पांच साल के लिए और बढ़ गया है। उसे दिल्ली के अपने नेताओं की गुटबाजी पर लगाम लगाने के साथ ही इस पर भी ध्यान देना होगा कि उसके अधीन काम करने वाले नगर निगम अपने कामकाज में सुधार करें।
देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली की शासन व्यवस्था अन्य राज्यों से भिन्न है। कई बार यहां की जनता को यह पता नहीं चलता कि उसकी किस समस्या का समाधान किसे करना है-दिल्ली सरकार को या फिर केंद्र सरकार को? इसका कोई औचित्य नहीं कि दोनों के बीच तालमेल के अभाव में दिल्ली की समस्याओं का समाधान न हो।
यदि आम आदमी पार्टी सरकार अपने कामकाज को और बेहतर करना चाहती है तो फिर उसकी कोशिश यह होनी चाहिए कि दिल्ली के नगर निगम उसके अधीन आएं।