दीपावली की आहट के साथ, बाजार में खुशियों के ‘पटाखें’

अजय कुमार,लखनऊ

अबकी बार होली की खुशियां भले कोरोना की भंेट चढ़ गई थीं, लेकिन लगता है करीब आठ महीने के बाद अंधेरे में उजाले की प्रतीक दीपावली नई खुशियां लेकर आएगी। पिछले आठ महीनों के बाद अब कोरोना का प्रभाव कुछ हलका होता दिख रहा है। दीपावली की आहट होते ही बाजार में रौनक लौटने लगी है। 56 में से करीब 26 सेक्टर के उद्योग-धंधे पुरानी रौ में लौट आए हैं। हांलाकि जब तक वैक्सीन नहीं आ जाती है तब तक हमें-आपको सुरक्षा नियमों का पालन करके ही कोरोना से लड़ना और बचना और जीतना होगा। हाथ बार-बार छोएं, चेहरे पर मास्क लगाए, अपने को बार-बार स्नेटाइज करते रहें और भीड़भाड़ वाले स्थानों पर जहां तक संभव हो जाने से बचें। क्योंकि कई देशों में कोरोना नियंत्रण में आने के बाद पुनः उग्र रूप धारण करने लगा है, इसलिए कोरोना से सुरक्षा की चेन कही से भी टूटना नहीं चाहिए। चाहें दीपावली हो या इससे पूर्व नवरात्र अथवा अन्य कई तीज-त्योहार सभी सावधानीपूर्वक मनाना होगा। खुशियों के नाम पर ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे आपका, समाज का या फिर प्रकृति का नुकसान हो। खासकर, पराली जलाने एवं पटाखे छुड़ाने से बचें। इन दोनों से काफी से प्रदूषण फैलता है। प्रकृति को बचाने के लिए हमें सरकार का मुंह देखने की बजाए स्वयं आगे आना होगा। हमें उन प्रकृति पे्रमियों की आवाज को मजबूती प्रदान करना होगी, जिनकी आवाज अक्सर सरकार में बैठी ताकतें अनदेखा कर देती हैं, जिसके चलते इस बार भी योगी सरकार ने दीपावली से ठीक पूर्व  पटाखा कारोबारियों को स्थाई और अस्थाई लाइसेंस जारी करने का फरमान सुना दिया ह।ै
दरअसल, दीपावली के समय दो विरोधी महकमे एक साथ बेहद सक्रिय हो जाते हैं. एक आतिशबाजी उद्योग दूसरा प्रदूषण विभाग। दीवाली से ठीक पहले अखबारों और टीवी पर सरकारी विज्ञापनों की भरमार होती है। इनके संदेश का मजमून यही होता है कि आतिशबाजी न करें और शहर को प्रदूषण मुक्त बनाए रखें तो दूसरी तरफ आतिशबाजी खुशी का इजहार करने की एक तरीका भी माना जाता है। पटाखों से खुशी, उमंग, त्यौहार के होने का अहसास भी फूटता है। बच्चे से लेकर बूढ़ों तक ऐसा कोई नहीं होगा आतिशबाजी जिसका मन न मोह लेती हो। इस उत्साह के सामने आतिशबजी से होने वाले  खतरे दूसरे नंबर पर पहुंच जाते हैं। सांस लेना कितना भी दूभर हो जाए, घर-बाहर पालतू और जानवर जितना भी डर जाएं, जोश, उमंग और त्यौहार के नशे में पर्यावरण के खराब होने की चिंता कहां किसी के पास रहती है?


समझ में नही आता है कि अगर पटाखे छुड़ाना खतरनाक है तो फिर उसे बैन क्यों नहीं किया जाता हैैं?पटाखे बिकेंगे तो लोग क्या छुड़ाएंगे नहीं ? क्या आतिशबाजी उद्योग अरबों रुपये लगाकर पटाखे इसलिए बनाता है कि कोई उन्हें न खरीेदे? जिन चीजों के प्रयोग पर पाबंदी के लिए सरकार को इतनी मशक्कत करनी पड़े, इतने विज्ञापन देने पड़ें, उनके उत्पादन की अनुमति ही वह क्यों दे रही है? बीड़ी, सिरगेट, शराब, गुटखा के साथ पटाखे भी ऐसी चीज हैं जिनके उत्पादन पर कोई रोक नहीं लगी है, लेकिन जिनका प्रयोग न करने को लेकर सरकार बेहद सचेत दिखने का प्रयास करती है! यह विरोधाभास क्यों? पर्यावरण की चिंता करते बड़े संजीदा विज्ञापन आ रहे हैं। पटाखों पर प्रतिबंध की जगह यदि चर्चा इस बात की होती है कि पटाखों की आवाज 125 डेसीमल से अधिक न होगी ? गीन और प्रकाश छोड़ने वाले पटाखों की आवज 90 डेसिमल से अधिक न हो ? दीपावली पर रात्रि दस बजे के बाद पटाखे नही छुड़ाने का आदेश है ? ऐसे विज्ञापनों की व्यावहारिकता पर ही संदेह होता है। इन विज्ञापनों से कई सवाल पैदा होते हैं क्या पटाखा जलाने वाले उपभोक्ताओं के पास आवाज की तीव्रता नापने वाला ऐसा कोई यंत्र होता है,जिससे पटाखों की आवाज की तीव्रता मापी जा सके? क्या उन्हें पटाखों के साथ आवाज की तीव्रता मापने वाला ये यंत्र भी खरीदना होगा? जिस समय एक ही कालोनी में दुनिया भर के पटाखे ताबड़तोड़ चल रहे हों, उस समय क्या यह संभव है कि वह यंत्र आवाज की सही तीव्रता मापे? क्या पटाखों पर लिखा होता है कि उसमें कितनी आवाज की तीव्रता वाले पटाखे हैं? क्या आज तक निर्धारित की गई तीव्रता वाले से ज्यादा आवाज वाले पटाखे कभी जले ही नहीं हैं? कान को बहरा करने वाले पटाखे हर साल जलते हैं, लेकिन कभी किसी को इसी कारण सजा हुई हो ऐसा नहीं सुना। इसी प्रकार रात्रि दस बजे के बाद पटाखे छूटते रहते हैं,पुलिस कैसे किसी के घर में घुसकर यह सबूत एकत्र कर सकती है कि उस घर से पटाखे दस बजे के बाद छुड़ाए गए होंगे।
यदि सरकार को सच में पर्यावरण की चिंता है तो उसके लिए विज्ञापन से कहीं ज्यादा असरदार दो चीजें हो सकती हैं. एक तो पटाखा उद्योग को व्यवस्थित तरीके से बंद किया जाए। यहां काम करने वालों को कहीं किसी और रोजगार में समाहित किया जाए। ताकि उनके लिए रोजगार की दिक्कत न हो। यह सोचना भी कितना बेवकूफी से भरा है कि बनाई गई चीजों का इस्तेमाल न किया जाए। थोक व्यापारी और दुकानदार पटाखे बेचेंगे नहीं, ग्राहक पटाखे खरीदेंगे नहीं, और बच्चे पटाखे जलाएंगे नहीं तो फिर पटाखों का निर्माण ही क्यों किया जा रहा है? बनी बनाई चीज को इस्तेमाल न करने के विज्ञापन देना भयंकर बेवकूफी है, छलावा है खुद से भी और पर्यावरण से भी। ऐसा कौन सा उत्पाद है इस दुनिया में जो सिर्फ गोदामों में भरा रखने और एक्सपायर होने के लिए छोड़ दिया जाता हो?
दूसरा ऐसे पटाखों की खोज की जाए जिससे पर्यावरण को कम से कम नुकसान हो. आज के समय में विज्ञान ने कितनी तरक्की कर ली है। एक से बढ़कर एक आविष्कार हो रहे हैं। हर क्षेत्र में. सरकार को पटाखा निर्माताओं को कम धुआं और आवाज करने वाले ‘एनवायरमेंट फ्रेंडली पटाखों’ के आविष्कार के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। पटाखे बनते समय ही यह सतर्कता बरती जानी चाहिए कि उनमें से कम से कम जहरीली गैस निकले और उनसे होने वाला शोर न्यूनतम हो। अलग से एक-एक पटाखे के शोर की तीव्रता मापना असंभव है, इसलिए प्रत्येक पटाखे के कवर पर निश्चित तौर से यह लिखे जाने का प्रावधान होना चाहिए कि वह कितनी तीव्रता की आवाज वाला पटाखा है। लेकिन इन दोनों बातों को बेहद शुरू में ही सावधानी और सतर्कता से सुनिश्चित किया जा सकता है।
पटाखों से फैलने वाले प्रदूषण पर जब चर्चा की जाए तो यह नहीं भूलना चाहिए कि इस देश की बहुत कम ही आबादी पटाखे जलाती है। देश की लगभग 80 प्रतिशत आबादी के सामने दो जून की रोटी के लाले हैं,उनके लिए पटाखे जलाना तो दूर देख लेना भी  सपना है, लेकिन पटाखे से होने वाले प्रदूषण का खामियाजा उन्हें भी भुगतना पड़ता है। छोटे-बड़े शहरों में रहने वाले सभी बच्चों को एक सी जहरीली हवा में सांस लेना होता है. जिन्होंने एक भी पटाखा नहीं जलाया उन्हें भी और जिन्होंने ढेर सारे पटाखे जलाए उन्हें भी। सरकार के पटाखे न जलाने के विज्ञापनों या कुछ मुठ्ठी भर परिवारों के पटाखे न जलाने से पर्यावरण की समस्या हल नहीं होने वाली। यदि सच में सरकार और पर्यावरण प्रेमी पर्यावरण को बचाना चाहते हैं तो उन्हें पटाखों के निर्माण और उनकी क्वालिटी पर पूरा ध्यान देने की जरूरत है न कि पटाखे  जलाने से रोकने पर। आज जब आम हिन्दुस्तानी को खुशियां बमुश्किल से नसीब हो रही हों तब उस पर पहरा बैठाया जाना सही नहीं है। प्रदूषण रोकने के लिए साल भर प्रयास करते रहना चाहिए। एक-दो दिन के प्रयास नाकाफी होते हैं। करीब आठ महीनों के कोरोना काल के बाद अगर जनता में तीज-त्योहारों का उत्साह है तो उसे अगर कोई बढ़ा नहीं सकता है तो कम भी करने की कोशिश न करें। क्योंकि जिंदगी में खुशियां बहुत मुश्किल से नसीब होती हैं। पटाखों को लेकर भी इस समय भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। पटाखों से होने वाले प्रदूषण को काफी बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना सही नहीं है।

Related Articles

Back to top button

Notice: ob_end_flush(): Failed to send buffer of zlib output compression (1) in /home/tarunrat/public_html/wp-includes/functions.php on line 5427

Notice: ob_end_flush(): Failed to send buffer of zlib output compression (1) in /home/tarunrat/public_html/wp-includes/functions.php on line 5427