लखीमपुर कांडः कई सफेदपोशों की फंस सकती है गर्दन

अजय कुमार,लखनऊ
उत्तर प्रदेश में जब लखीमपुर-खीरी सुलग रहा था,तब गैर भाजपाई दल वहां आग में घी डालने का काम कर रहे थे। किसी को इस बात की चिंता नहीं थी कि लखीमपुर में जो कुछ हुआ वह किसकी साजिश का दुष्परिणाम था। सभी दलोें के नेता अपने द्वारा तैयार किया गया खाका खींच कर किसानों के रूहनुमा बनने को बेताब थे तो योगी सरकार और केन्द्र के एक मंत्री और उनके बेटे को घेरने में लगे थे। अच्छा ही हुआ कि योगी सरकार ने समझदारी से काम लिया। प्रशासन और किसान नेताओं के बीच बातचीत हुई और कुछ शर्तो के साथ   इस बात के लिए मान गए कि वह अब इस घटना पर और सियासत नहीं होने देंगे। इसी के के साथ मृत किसानों के शवों का पोस्टमॉर्टम और फिर अंतिम संस्कार का रास्ता साफ हो गया। आंदोलनकारी किसानों ने योगी सरकार से जो मुख्य मांगे की थी उसमें कहा गया था कि लखीमपुर कांड की जांच हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज से कराई जाए,जिस पर सरकारी पक्ष ने तुरंत सहमति दे दी। मृतक किसान परिवारों को 45 लाख रुपये का मुआवजा और एक सदस्य को सरकारी नौकरी भी देने पर भी सरकार और किसानों नेताओं के बीच सहमति बनी है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अभी तक यूपी सरकार ने इस मामले को अच्छी तरह संभाला है। उसने सही वक्त पर आला पुलिस अधिकारियों को मौके पर भेजा। इसके साथ 8 दिनों में आरोपियों को गिरफ्तार करने की बात भी सरकार ने कही है। सरकार के इन प्रयासों से इलाके में तनाव कम करने में मदद मिल सकती है। किसानों का गुस्सा शांत हो सकता है। सबसे अच्छी बात यह कि सरकार ने उन तीन बीजेपी कार्यकर्ताओं और एक वाहन चालक के लिए भी मुआवजे की घोषणा की है। यह जरूरी भी था। अब योगी सरकार की पहली प्राथमिकता लखीमपुर खीरी को सुलगाने वालों का पता लगाकर उन्हें जेल की सलाखों तक पहुंचाने की हो गई है। हो सकता है जब जांच शुरू हो तो कई उन गैर भाजपाई नेताओं पर भी शिकंजा कस जाए,जो लगातार किसान आंदोलन की आड़ में प्रदेश का माहौल खराब करने में लगे थे।
यह कहना गलत नहीं होगा कि लखीमपुर खीरी कांड के आरोपियों की गिरफ्तारी के साथ ही, इस मामले में कई और बातें भी अभी स्पष्ट होनी हैं। चार किसानों को एक केंद्रीय मंत्री के बेटे की गाड़ी से कुचले जाने के इल्जाम हैं तो किसानों पर भी बीजेपी के चार कार्यकर्ताओं को मार डालने के आरोप हैं। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी भी गौरतलब है।सुप्रीम कोर्ट ने किसान संगठनों से सवाल किया है कि जब तीनों कृषि कानूनों पर रोक लगी है, तो आप किसकेे विरोध में आंदोलन कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ किसान संगठनों  की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि जब भी ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं (26 जनवरी को लाल किले औेर आसपास किसानों द्वारा किया गया तांडव) होती हैं, कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होता। प्रदर्शनकारी आंदोलन को शांतिपूर्ण बताते हैं, लेकिन हिंसा होने पर उसकी जिम्मेदारी नहीं लेते। अदालत ने किसान महापंचायत की जंतर-मंतर पर सत्याग्रह की अनुमति मांगने वाली याचिका की सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की।
लब्बोलुआब यह है कि लखीमपुर खीरी की घटना के बाद विचार इस बात पर भी होना चाहिए कि आखिर यह घटना हुई क्यों? आखिर जब स्थानीय सांसद एवं केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र टेनी के एक बयान के कारण किसान संगठन आक्रोशित थे तो फिर उनमें और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच टकराव टालने के लिए आवश्यक उपाय क्यों नहीं किए गए? सवाल यह भी है कि ये कैसे शांतिपूर्ण आंदोलनकारी थे, जिन्होंने अपने साथियों को कथित तौर पर टक्कर मारने वालों को उनके वाहनों से खींचने के बाद पीट-पीटकर मार डाला? इनमें एक पत्रकार भी था। आखिर उसकी क्या गलती थी? क्या न्याय मांगने का यही तरीका है? निःसंदेह ऐसे हिंसक तौर-तरीके तभी देखने को मिलते हैं, जब आंदोलनकारियों और शासन-प्रशासन के बीच वैमनस्य बढ़ता चला जाता है। इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि बीते दस महीने से जारी किसान संगठनों के आंदोलन के कारण आंदोलनकारियों और सत्तापक्ष के बीच कटुता हद से ज्यादा बढ़ गई है। यदि दोनों पक्षों के बीच बातचीत नहीं होती और शीघ्र ही किसी सुलह-समझौते पर नहीं पहुंचा जाता तो जैसी भयावह घटना लखीमपुर खीरी में हुई, वैसी अन्यत्र भी हो सकती है। यदि ऐसी घटनाओं से बचना है और यह सुनिश्चित करना है कि आगे जान-माल का नुकसान न हो तो फिर दोनों पक्षों को नरम रवैया अपनाने के साथ किसी समझौते पर पहुंचने की इच्छाशक्ति सचमुच दिखानी होगी। क्योंकि यह साफ दिख रहा है कि  कुछ तत्व किसान संगठनों के आंदोलन से बेजा लाभ उठाने कोेे तेजी से सक्रिय हैं। वे न केवल कटुता और उत्तेजना फैला रहे हैं, बल्कि माहौल बिगाड़ने मंे भी लगे हैं। लखीमपुर खीरी में ऐसे ही तत्व अपना शरारती एजेंडा पूरा करने में सफल हो गए। शायद इन तत्वों का काम इसलिए भी आसान हो गया, क्योंकि कई समूह किसान संगठनों को उकसाने में लगे हुए हैं। जो तमाम विपक्षी नेता लखीमपुर खीरी जाने को आतुर थे, उनका उद्देश्य वहां जान गंवाने वालों के प्रति संवेदना प्रकट करना नहीं, बल्कि अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना था,जिस वजह से माहौल और भी खराब हो गया। वहीं, अगर बात लखीमपुर खीरी मामले की करें तो जांच के बाद दोषियों को सजा मिलना भी जरूरी है। लखीमपुर कांड में कई सियासी और देश विरोधी कृत्य करने वालों की गर्दन भी कानून के शिकंजे में फंस सकती है।

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