फाइव स्टार कल्चर वाले ‘आंदोलनों’ का बढ़ता चलन

अजय कुमार, लखनऊ

देश की जनता ने कई बड़े आंदोलन देखे हैं। इसमें से अनेकों  आंदोलन ऐसे भी हुए जिसने सरकार की ‘चूले’हिल कर रख दी थीं। ऐसे आंदोलन की श्रेणी में मजदूरों, किसानों, सरकारी कर्मचारियों के आंदोलनों को रखा जा सकता है। इसमें ट्रक आपरेटरों का चक्का जाम भी शामिल है।देश में सामाजिक सरोकारों, प्राकृ्रतिक सम्पदा बचाने को लेकर भी कई आंदोलन चले। ऐसे तमाम  आंदोलनों से देश को कई बड़े नामचीन नेता भी मिले, जिन्होंने आगे चलकर भले ही राजनीति में बड़ी जगह बनाई हो और जिनकी देश सेवा मिसाल बनी हो, लेकिन जब तक इन नेताओं ने मजदूरों, किसानों सामाजिक सरोकारों आदि के लिए संघर्ष किया। आंदोलन चलाया। तब तक यह किसी राजनैतिक दल का मोहरा बनते नहीं दिखाई दिए। सभी दलों से यह परस्पर दूरी बनाकर चलते थे। आज की तरह इनके आंदोलनों में मंच पर राजनैतिक चेहरे नजर नहीं आते थे, इसलिए यह आंदोलन कभी किसी तरह के विवाद में भी नहीं फंसे।
बात आजादी के बाद के प्रमुख आंदोलनों की कि जाए तो गांधीवादी विचारधारा पर आधारित ‘चिपको आन्दोलन’ उत्तराखण्ड के चांदनी प्रसाद भट्ट और सुन्दरलाल बहुगुणा की अगुवाई में चलाया गया था। भारत के जंगलो को बचाने के लिए किया गया यह आन्दोलन काफी तेजी से फैला और पूरे देश में इसका डंका सुनाई दिया। यह आन्दोलन 1970 की शुरुआत में शुरू हुआ था जब कुछ महिलाओं ने पेड़ काटने का विरोध करने का एक अलग ही तरीका निकाला। जब भी कोई व्यक्ति पेड़ काटता था तो यह महिलाएं पेड़ से चिपक कर खड़ी हो जाती थीं। यह आन्दोलन पूरे देश में जंगल की आग की तरह फैला और हजारों लाखों लोग इसमें शामिल होते चले गए।

इसी तरह से पूरे भारत की राजनीति की दिशा बदल देने वाला ‘जेपी आन्दोलन’ 1974 में बिहार के विद्यार्थियों द्वारा बिहार सरकार के अन्दर मौजूद भ्रष्टाचार के विरूद्ध शुरू किया गया था। यही आन्दोलन बाद में केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार की तरफ मुड़ गया। इस आन्दोलन की अगुवाई प्रसिद्ध गांधीवादी और सामाजिक कार्यकर्ता जयप्रकाश नारायण ने की थी, जो बाद में जेपी के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। इस आन्दोलन को ‘सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन’ भी कहा गया था। आन्दोलनकारी बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री ‘अब्दुल गफूर’ को हटाने की मांग कर रहे थे, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री ‘इंदिरा गांधी’ ने ऐसा करने से मना कर दिया। तब यह आन्दोलन सत्याग्रह में बदल गया और आन्दोलनकारी एक-एक कर गिरफ्तारी देने लगे। जेपी पूरे देश में घूम-घूमकर कांग्रेस के विरुद्ध प्रचार करने लगे और सभी केन्द्रीय विपक्षी दलों को पार्टी के विरुद्ध एकजुट करने लगे। यह जेपी आन्दोलन का चमत्कार ही था की केंद्र में मोरार जी देसाई के नेतृत्व में ‘जनता पार्टी’ की सरकार बनी जो आजाद भारत की पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी और इसी जेपी आन्दोलन के कारण ‘इंदिरा गाँधी’ जैसी दिग्गज नेता को भी एक अदने से नेता राजनारायण से चुनाव हारना पड़ गया था।

प्रसिद्ध ‘जंगल बचाओ आन्दोलन’ 1980 में बिहार से जंगल बचाने की मुहिम से शुरू हुआ जो बाद में झारखण्ड और उड़ीसा तक फैला। 1980 में सरकार ने बिहार के जंगलो को मूल्यवान सागौन के पेड़ो के जंगल में बदलने की योजना पेश की, और इसी योजना के विरुद्ध बिहार के सभी आदिवासी काबिले एकजुट हुए और उन्होंने अपने जंगलो को बचाने हेतु एक आन्दोलन चलाया। इसे ‘जंगल बचाओ आन्दोलन’ कहा गया। साल 1985 से शुरू हुआ ‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ नर्मदा नदी पर बन रहे अनेक बांधो के विरुद्ध शुरू किया गया और इस प्रसिद्ध आन्दोलन मेंक्षेत्र के बहुसंख्यक आदिवासी, किसान, पर्यावरणविद और मानवाधिकार आन्दोलनकारियों ने सरकार के इस बांधो के फैसले के विरुद्ध आन्दोलन शुरू किया। बाद में इस आन्दोलन में प्रसिद्ध सेलिब्रिटीज भी जुड़ते हुए चले गये और अपना विरोध जताने के लिए भूख हड़ताल का प्रयोग भी किया। बाद में कोर्ट ने दखल देते हुए सरकार को आदेश दिया कि पहले प्रभावित लोगों का पुनर्वास किया जाए तभी काम आगे बढाया जाए और बाद में कोर्ट ने बांधो के निर्माण को भी मंजूरी दी।
साल 2011 में ही प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर जनलोकपाल बिल के लिए भूख हड़ताल शुरू की, जिसके समर्थन में पूरा देश एकजुट हुआ। इस आन्दोलन को इतनी सफलता मिली कि यह पिछले 2 दशक का सबसे लोकप्रिय आन्दोलन बना और बाद में इसी आन्दोलन की बदौलत अरविन्द केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमन्त्री बने।

साल 2012 में दिल्ली में हुए एक गैंगरेप के बाद इस देश ने अपने नागरिकों का एक ऐसा गुस्सा देखा जो महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध था। इससे एक स्फूर्त आन्दोलन खड़ा हुआ जिसे निर्भया आन्दोलन कहा गया। हजारों लोग विरोध करने के लिए सड़को पर उतर आये और पूरा सोशल मीडिया इस आन्दोलन से भर गया। यहां तक कि लोगों ने अपनी प्रोफाइल पिक्चर की जगह एक ब्लैक डॉट की इमेज लगायी। इसके बाद पूरे देश की विभिन्न राज्य सरकारों और केंद्र सरकार ने महिला सुरक्षा को लेकर विभिन्न कदम उठाये। इस आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि इस आंदोलन का नेतृत्व कोई बड़ा नेता या चेहरा नहीे कर रहा था।

उक्त नेताओं की एक हुंकार पर लोग सड़क पर आ जाते थे,लेकिन इनके दामन पर किसी तरह का कोई दाग नहीं लगा। लेकिन पिछले कुछ वर्षो में आंदोंलन का स्वरूप ही बदल गया है। अब आंदोलन के आसपास का नजारा ‘पिकनिक स्पाॅट’ और फाइव स्टार होटलों जैसा नजर आता है। सब कुछ काफी सलीके से मैनेज होता है। इसका ‘अश्क’ कुछ वर्षो पूर्व जाट/गूजरों के आरक्षण को लेकर किए गए आंदोलन में देखने को मिला था। जब रेल पटरियों पर हुक्का-पानी लेकर चारपाई पर पसरे नजर आते थे। पटरियों के आसपास ही खाना बनता था। बड़े-बड़े टैंट लगाकर किसान डटे रहते थे। इसके बाद नागरिकता सुरक्षा कानून के विरोध में हुए आंदोलनों ने एक नई ‘इबारत’ लिखने का काम किया। जहां बिरयानी से लेकर लजीज व्यंजनों का लुफ्त उठाते लोग दिख जाते थे। अब तो आंदोलन स्थल पर वाशिंग मशीन,जाड़े में हीटर तो गर्मी में ए0सी0/कूलर आंदोलनकारियों को पीने का शुद्ध पानी मिेले इसके लिए आर0 ओ. मशीन से लेकर मसाज मशीने,खाना बनाने की मशीने मौजूद रहती हैं। इन इलेक्ट्रानिक उपकरणों को इस्तेमाल करने के बिजली की व्यवस्था कटिया लगाकर की जाती है। पानी की कमी न हो इसके लिए बड़ी-बड़ी बोरिंग कर दी गई है। इतना ही नहीं राष्ट्रीय राजमार्ग पर पक्के निर्माण तक आंदोलनकारियों ने करा लिए है। इन कथित आंदोनकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई की जाती है तो मोदी विरोधी नेता छाती पीटने लगते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि किसान आंदोलन के नाम पर उक्त कृत्य अंधेरगर्दी और अराजकता के अलावा और कुछ नहीं। इस अराजकता पर इसलिए अंकुश लगाया जाना चाहिए, क्योंकि दिल्ली-एनसीआर के लाखों लोगों को प्रतिदिन घोर परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। अब जब यह स्पष्ट है कि किसान नेता मनमानी पर आमादा हैं, तब फिर इसका कोई औचित्य नहीं कि आम लोगों को जानबूझकर तंग करने वाली उनकी हरकतों की अनदेखी की जाए। इसमें कोई हर्ज नहीं कि किसान नेता अपने आंदोलन को राजनीतिक शक्ल देकर इस या उस दल के साथ खड़े हो जाएं, लेकिन उन्हें आम जनता को परेशान करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। सड़कों को घेरने और टोल नाकों पर कब्जा करने की हरकतें कानून एवं व्यवस्था का उपहास ही उड़ा रही हैं। कोई भी आंदोलन हो, उसकी आड़ में अराजकता स्वीकार्य नहीं की जा सकती है।

कहने को तो ऐसे आंदोलनों के पीछे का मकसद पूरी तरह से सियासी होता है,लेकिन इसे कभी किसानों का तो कभी आम नागरिक से जोड़ दिया जाता है। किसान आंदोन भी इसकी बानगी है। चंद किसान संगठनों की ओर से जारी कृषि कानून विरोधी आंदोलन जिस तरह खत्म होने का नाम नहीं ले रहा, वह केवल किसान नेताओं की जिद को ही जाहिर नहीं करता, बल्कि यह भी बताता है कि वे किस तरह किसानों के साथ छल करने में लगे हुए हैं। जो किसान नेता यह बहाना बनाने में लगे हुए थे कि उनका राजनीतिक दलों से कोई लेना-देना नहीं, वे इन दिनों बंगाल के दौरे पर हैं और बीजेपी को हराने और  ममता बनर्जी को जिताने की अपील कर रहे हैं। यह और बात है कि किसान नेताओं के इसे दोहरे चरित्र से उन्हें खुलकर समर्थन देने वाले वामदल भी असहज महसूस कर रहे हैं,जिन्होंने किसान आंदोलन को बड़ा और खड़ा करने में सबसे अधिक योगदान दिया था। यह तो समझ आता है कि किसान नेता चुनाव वाले राज्यों में पहुंचकर भाजपा को हराने की अपील करें, लेकिन किसी के लिए भी यह समझना कठिन है कि आखिर वे बंगाल पहुंचकर उस ममता सरकार की पैरवी कैसे कर सकते हैं, जिसने संकीर्ण राजनीतिक कारणों से अपने राज्य के किसानों को किसान सम्मान निधि से वंचित कर रखा है? साफ है कि इन किसान नेताओं को आम किसानों के हितों की कहीं कोई परवाह नहीं। राकेश टिकैत जैसे तमाम नेता मोदी सरकार के उस नियम का विरोध करने के लिए आगे आ गए हैं, जिसके तहत केंद्र सरकार ने यह तय किया था कि सरकारी खरीद वाले अनाज का पैसा सीधे किसानों के खाते में जाएगा। यह व्यवस्था किसानों को बिचैलियों और विशेष रूप से आढ़तियों की मनमानी से बचाने के लिए की गई है, लेकिन हैरानी की बात है कि किसान नेताओं को यह रास नहीं आ रहा है। आश्चर्यजनक रूप से पंजाब सरकार भी इस व्यवस्था से कुपित है।

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