ट्रिपल तलाक जैसी फजीहत से बचने के लिए अब हर जिले में शरिया कोर्ट खोलेगा मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड
तीन तलाक में हुए फजीहत के बाद मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अब सिविल विवाद को निपटाने के लिए शरिया कोर्ट स्थापित करने जा रहा है.पर्सनल लॉ बोर्ड की योजना है कि देश के सभी जिलों में इस तरह की अदालत कायम की जाए, जिसमें छोटे-मोटे विवाद का फैसला किया जा सकता है.
इस कोर्ट को दारूल कज़ा कहा जाएगा, जो किसी भी विवाद को शरियत के मुताबिक फैसला सुनाएगी. दिल्ली में बोर्ड की बैठक पंद्रह जुलाई को है. इस योजना का प्रस्ताव इस बैठक में रखा जाएगा. बोर्ड के मेंबर ज़फरयाब जिलानी का कहना है कि इस तरह की कुछ कोर्ट उत्तर प्रदेश में काम कर रही हैं. बोर्ड की चाहत पूरे देश में इस तरह के, जिससे लोगों के छोटे मसलों का निपटारा शरिया कोर्ट के ज़रिए कर दिया जाए. इससे मुसलमानों को कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.वहीं पैसे और समय की बचत भी होगी.
दारूल कज़ा कायम करने का मकसद
शरिया अदालतें चलाने की योजना कई बार बन चुकी है.लेकिन इस को अमली जामा पहनाया नहीं जा सका है. यूपी में तकरीबन 40 शरिया अदालतें चल रहीं हैं, जिसमें कामकाज हो रहा है. लेकिन शरिया अदालत का फैसला मानना दोनों पक्ष की मजबूरी नहीं हो सकती है. शरिया अदालत के पास कानूनी अधिकार नहीं है. इसलिए इसका फैसला मानने के लिए लोग बाध्य नहीं हैं. शरिया अदालत का फैसला तभी अमल में आ सकता है,जब दोनों पक्ष उसको मान ले, तभी इस अदालत की उपयोगिता साबित हो सकती है.
तीन तलाक जैसी फज़ीहत से बचने का तरीका
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ट्रिपल तलाक के मसले पर अदालत में लड़ाई हार चुका है. ट्रिपल तलाक के खिलाफ सरकार कानून लोकसभा में पास करा चुकी है. राज्यसभा में इसका पास होना बाकी है. मुस्लिम तंज़ीमे चाहती है कि तीन तलाक के मसले पर समाज के भीतर कोई विकल्प तलाश किया जाए. सरकार के कानून का विरोध भी हो रहा है. मुस्लिम महिलाओं की तरफ से कई जगह विरोध भी किया गया है.
तीन तलाक के मसले से सबक लेकर पर्सनल लॉ बोर्ड शरियत कानून के तहत कई सिविल मामले निपटाएगा.ज्यादातर मुस्लिम समाज के भीतर तलाक ज़मीन जायदाद और विरासत का मसला आता है. इसमें शरिया कानून के तहत फैसला किया जाएगा. मुस्लिम धर्म के जानकार मानते है कि धार्मिक बुनियाद पर दिया गया फैसला सभी पक्ष मानेंगें. लेकिन कोई पक्ष अगर नहीं मानता है तो देश की अदालतों में जा सकता है.
कहां से आएगा खर्चा
इन अदालतों को चलाने के लिए तकरीबन पचास हज़ार रूपए प्रति माह खर्च होने वाला है. बोर्ड की बैठक में इस खर्चे का कैसे इंतज़ाम होगा, क्योंकि बोर्ड के पास इस तरह का फंड नहीं है. माना जा रहा है कि जिन जिलों मे अदालतें चलेंगी वहां के लोगों से अपील की जाएगी कि वो कुछ पैसा इस काम में लगाए. हालांकि अदालतों की तरह कोर्ट फीस भी ली जा सकती है,लेकिन मुस्लिम समाज में लोगों के पास इतना पैसा नहीं है कि वो कोर्ट की तरह फीस की भरपाई कर पाए. बहरहाल 15 जुलाई की बैठक में इन सब मसलों पर बोर्ड गौर करने वाला है.
शरिया कोर्ट पर 2014 में हुआ सुप्रीम कोर्ट में फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने 8 जुलाई 2014 को एक फैसले में शरिया अदालतों पर पांबदी लगाने से इंकार कर दिया था. 2005 में दायर विश्व लोचन मदान की याचिका पर कोर्ट ने कहा था कि किसी को शरिया कोर्ट की बात मानने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है. लेकिन अगर कोई शरिया कोर्ट में जाना चाहता है तो उसको रोका भी नहीं जा सकता है. शरिया कोर्ट को कोई कानूनी अधिकार नहीं है. किसी को भी बुनियादी अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है. जहां तक अदालत के इस फैसले का सवाल है, कोर्ट ने साफ कर दिया कि शरिया कोर्ट के फैसले का कानूनी नजरिए से कोई महत्व नहीं है.
उस वक्त पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा था कि शरिया अदालतें देश के न्यायिक व्यवस्था को मानती है. बोर्ड ने कहा कि ये अदालती मसलों में कोई दखल नहीं है. इन अदालतों के काज़ी भी देश के कानून को मानते है. ये एक पंचायत की तरह है, जिसको धार्मिक कानून के दायरे में देखा जा सकता है. हालांकि बोर्ड से जुड़े लोगों का कहना है कि बोर्ड अपने 2014 के स्टैंड पर कायम है और उसमें कोई तब्दीली नहीं है.
शरिया कोर्ट के पक्ष में तर्क
मुस्लिम समाज में परिवारिक झगड़े से लेकर कई तरह के मामले आते है. जिस तरह से समाज की आर्थिक स्थिति है, उसे देखते हुए कई बार कोर्ट में जाना संभव नहीं हो पाता. कोर्ट में जाने से आर्थिक नुकसान भी होता है. अदलतों के चक्कर काटने के अलावा वकीलों की फीस भी अदा करने में सभी सक्षम नहीं है. सिविल मामले कई साल तक अदालत में लंबित रहते हैं, जिससे विवाद बढ़ता रहता है.
शरिया अदलतों में त्वरित फैसला हो सकता है. वहीं किसी को आर्थिक नुकसान भी नहीं होगा. लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ये कैसे सुनिश्चित करेगी की सभी के साथ न्याय हो रहा है? दूसरे करप्शन रोकने के लिए भी कोई रास्ता ढूंढना होगा,नहीं तो अमीर इस सिस्टम का फायदा उठा सकते हैं. गरीब को फिर कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा. वहीं अदालतों पर छोटे मोटे मामलों के लिए नए केस नहीं दायर होगें, जिससे अदालतों पर भी मुकदमों का भार कम होगा. क्योंकि परिवारिक मामलों में अदालते भी पर्सनल लॉ के मसलों का ख्याल रखती हैं.
कोर्ट में लंबित मामले
भारत की आबादी के हिसाब से जजों की कमी है. इसकी वजह से अदालतों में कई साल तक केस चलते है. बहुत सारे मामले लंबित रहते हैं. सिविल मामलों की बात करें जिनमें ये शरिया अदालतें काम कर सकती हैं, उनमें भी लंबित मामलों की तादादा काफी ज्यादा है. 3 मार्च 2016 को कानून मंत्रालय की तरफ से जारी की गई सूची के मुताबिक दिसंबर 2014 तक ज़िला और निचली अदालत में तकरीबन 8234281 और हाईकोर्ट में 3116492 मामले लंबीत हैं. वहीं सुप्रीम कोर्ट में ये संख्या 19 फरवरी 2016 तक 48418 की थी. हालांकि 2012 से लेकर 2014 के बीच निचली अदालतों ने तकरीबन साढ़े पांच करोड़ मुकदमे का निपटारा किया है.वहीं इस दौरान हाई कोर्ट नें तकरीबन 53 लाख मुकदमे निपटाए हैं.इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट नें भी फरवरी 2016 तक डेढ़ लाख केस का निपटारा किया है.