इस बार जन्माष्टमी पर बन रहा है खास संयोग, ऐसे करें भगवान की पूजा
वर्ष 2018 की जन्माष्टमी कई मायनों में खास है। दरअसल इस बार जयंती संयोग बन रहा है। जयंती संयोग से आशय यह है कि इस बार श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर ठीक वैसा ही संयोग बन रहा है, जैसा उस वक्त बना था जब द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण का पृथ्वी पर अवतरण हुआ था। मान्यता है कि इस समय जो भी बालक जन्म लेगा वह अद्वितीय होगा और देश तथा दुनिया की भलाई का काम करेगा और परिवार का बड़ा नाम करेगा। भगवान श्रीकृष्ण विष्णुजी के आठवें अवतार माने जाते हैं। यह श्रीविष्णु का सोलह कलाओं से पूर्ण भव्यतम अवतार है। श्रीराम तो राजा दशरथ के यहां राजकुमार के रूप में अवतरित हुए थे, जबकि श्रीकृष्ण का प्राकट्य अत्याचारी कंस के कारागार में हुआ था। कंस ने अपनी मृत्यु के भय से अपनी बहन देवकी और वासुदेव को कारागार में कैद किया हुआ था।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर क्या करें
श्रीकृष्णजन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि भी कहा गया है। मान्यता है कि इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्ति हटती है। श्रीकृष्णजन्माष्टमी के त्यौहार में भगवान विष्णु की, श्री कृष्ण के रूप में भी पूजा की जाती है। जन्माष्टमी के अवसर पर मन्दिरों को अति सुन्दर ढंग से सजाया जाता है तथा मध्यरात्रि को प्रार्थना की जाती है। श्रीकृष्ण की मूर्ति बनाकर उसे एक पालने में रखा जाता है तथा उसे धीरे–धीरे से हिलाया जाता है। लोग सारी रात भजन गाते हैं तथा आरती की जाती है। आरती तथा बालकृष्ण को भोजन अर्पित करने के बाद सम्पूर्ण दिन के उपवास का समापन किया जाता है।
पूजन विधि
इस दिन घर में भी भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति अथवा शालिग्राम का दूध, दही, शहद, यमुनाजल आदि से अभिषेक कर उसे अच्छे से सजाएं। इसके बाद श्रीविग्रह का षोडशोपचार विधि से पूजन करें। रात को बारह बजे शंख तथा घंटों की आवाज से श्रीकृष्ण के जन्म की खबरों से जब चारों दिशाएं गूंज उठें तो भगवान श्रीकृष्ण की आरती उतार कर प्रसाद ग्रहण करें। इस प्रसाद को ग्रहण करके ही व्रत खोला जाता है। धर्मग्रंथों के मुताबिक जन्माष्टमी के व्रत को करना अनिवार्य माना जाता है। मान्यता है कि जब तक उत्सव सम्पन्न न हो जाए तब तक भोजन नहीं करना चाहिए। व्रत के दौरान फलाहार लेने में कोई मनाही नहीं है।
पूजन के समय ध्यान रखें यह बड़ी बातें
व्रती को किसी नदी में तिल के साथ स्नान करके यह संकल्प करना चाहिए– ‘मैं कृष्ण की पूजा उनके सहगामियों के साथ करूंगा।’ व्रती को किसी धातु की कृष्ण प्रतिमा बनवानी चाहिए, प्रतिमा के गालों का स्पर्श करना चाहिए और मंत्रों के साथ उसकी प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिए। मंत्र के साथ देवकी व उनके शिशु श्री कृष्ण का ध्यान करना चाहिए तथा वसुदेव, देवकी, नन्द, यशोदा, बलदेव एवं चण्डिका की पूजा स्नान, धूप, गंध, नैवेद्य आदि के साथ एवं मंत्रों के साथ करनी चाहिए। इसके बाद प्रतीकात्मक ढंक से जातकर्म, नाभि छेदन, षष्ठीपूजा एवं नामकरण संस्कार आदि करने चाहिए। तब चन्द्रोदय (या अर्धरात्रि के थोड़ी देर उपरान्त) के समय किसी वेदिका पर अर्ध्य देना चाहिए, यह अर्ध्य रोहिणी युक्त चन्द्र को भी दिया जा सकता है, अर्ध्य में शंख से जल अर्पण होता है, जिसमें पुष्प, कुश, चन्दन लेप डाले हुए रहते हैं। इसके उपरान्त व्रती को चन्द्र का नमन करना चाहिए और वासुदेव के विभिन्न नामों वाले श्लोकों का पाठ करना चाहिए।
व्रती को रात्रि भर कृष्ण की प्रशंसा के स्रोतों, पौराणिक कथाओं, गानों में संलग्न रहना चाहिए। दूसरे दिन प्रात: काल के कृत्यों के सम्पादन के उपरान्त, कृष्ण प्रतिमा का पूजन करना चाहिए, ब्राह्मणों को भोजन देना चाहिए, सोना, गौ, वस्त्रों का दान, ‘मुझ पर कृष्ण प्रसन्न हों’ शब्दों के साथ करना चाहिए। कृष्ण प्रतिमा किसी ब्राह्मण को दे देनी चाहिए और पारण करने के उपरान्त व्रत को समाप्त करना चाहिए।