Electoral Bond News: क्या है चुनावी बॉन्ड स्कीम, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने किया रद्द
New Delhi: सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड पर ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए इसे रद्द कर दिया है।सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ़ कहा है कि चुनावी बॉन्ड असंवैधानिक हैं और इस पूरे सिस्टम में पारदर्शिता नहीं है। इसके साथ ही कोर्ट ने आदेश दिया है कि चुनावी बॉन्ड बेचने वाली बैंक स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया तीन हफ्ते में चुनाव आयोग के साथ सभी जानकारियां साझा करे। इसके लिए कोर्ट ने बैंक को तीन हफ्ते का समय दिया है।
क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड?
इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक दलों को चुनावी चंदा देने वाली एक व्यवस्था है। 2017 में इसका ऐलान हुआ और अगले बरस ये लागू कर कर दी गई। इसके तहत प्रावधान किया गया कि डोनर (दान देने वाला) भारतीय स्टेट बैंक से बांड खरीद कर अपनी पसंद की पार्टी को दे सकता है और फिर वह पार्टी उसको 15 दिनों के भीतर एसबीआई में भुना सकती है।
चुनावी बॉन्ड योजना के मार्फत डोनर कोई शख्स, कंपनी, फर्म या एक समूह का हो सकता है और वह 1 हजार, 10 हजार, 1 लाख, 10 लाख और 1 करोड़ रुपये में से किसी भी मूल्य के बॉन्ड को खरीद कर उसे चंदे के तौर पर राजनीतिक दलों को दे सकता है। इस पूरी प्रक्रिया में दान देने वाले की पहचान गोपनीय रखने की बात थी जो कइयों को नागवार गुजरी। एक और दिलचस्प शर्त इस योजना में नत्थी कर दी गई कि जिस भी पार्टी ने लोकसभा या विधानसभा के पिछले चुनाव में डाले गए वोटों का कम से कम एक फीसदी हासिल किया हो, वही इस स्कीम के जरिये चंदा हासिल कर सकता है।
दान की रकम पर मिलती थी आयकर में 100% छूट
एसबीआई इन बॉन्ड को 1,000, 10,000, 1 लाख, 10 लाख और 1 करोड़ रुपए के समान बेचता है। इसके साथ ही दानकर्ता दान की राशि पर 100% आयकर की छूट पाता था। इसके साथ ही इस नियम में राजनीतिक दलों को इस बात से छूट दी गई थी कि वे दानकर्ता के नाम और पहचान को गुप्त रख सकते हैं। इसके साथ ही जिस भी दल को यह बॉन्ड मिले होते हैं, उन्हें वह एक तय समय के अंदर कैश कराना होता है।
एनडीए शासनकाल में आया इलेक्टोरल बॉन्ड
एनडीए के सरकार में तब के फाइनेंस मिनिस्टर अरूण जेटली इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को फाइनेंस एक्ट के जरिये लेकर आए। चुनावी बॉन्ड की इस व्यवस्था के लिए भारत सरकार ने आरबीआई कानून, इनकम टैक्स कानून, रिप्रजेंटेशन ऑफ पीपल एक्ट जैसे कुल करीब पांच कानूनों में संशोधन किए।
फाइनेंस एक्ट को भी मनी बिल के जरिये सदन से पारित कराया गया जिस पर भी खूब हाय-तौबा मचा। किसी विधेयक को मनी बिल के तौर पर पारित कराने का मतलब होता है कि आप राज्य सभा की मंजूरी से बच जाते हैं। ‘चुनावी सुधार’ के नाम पर लाए जा रहे इतने अहम कानून को बगैर राज्यसभा के लाना बहुत से लोगों को खटका।
चुनावी पारदर्शिता को लेकर काम करने वाली एनजीओ ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ ने सितंबर 2017 में देश की सर्वोच्च अदालत में याचिका दायर कर इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ी पारदर्शिता और दूसरी गंभीर चिंताओं पर सवाल खड़ा किया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी समेत कई और याचिकाकर्ताओं ने भी इस स्कीम को कोर्ट में चुनौती दी। याचिकाओं में कहा गया कि इस कानून ने राजनीतिक दलों के लिए ऐसी फंडिंग के दरवाजे खोल दिए हैं जिसकी न तो कोई सीमा है और न ही उस पर कोई नियंत्रण। एक और बात कही गई कि इसके जरिये बड़े पूंजीपति सत्ताधारी दल को बेहिसाब गुप्त चंदा दे अपने मन-अनुकूल नीतियां बनवा सकते हैं।