Worship in copper vessels: क्यों प्रिय है भगवान विष्णु को ताम्र-पात्र, कैसे प्रारम्भ हुई ताम्रपात्रों में पूजा
Worship in copper vessels: हिन्दू संस्कृति में जब हम पूजा-पाठ व आराधना आदि करते हैं, तब पात्र-साधन में समान्यतः ताम्र धातु से हीं निर्मित पात्रों (बर्तन) का हीं विशेषकर प्रयोग करते हैं । क्या आपने कभी सोचा है, कि आखिर ऐसा क्यों ? आइये, आज हम जानते हैं कि क्या है ताम्र-पात्र में पूजा करने का पौराणिक रहस्य !
Worship in copper vessels: क्यों प्रिय है भगवान विष्णु को ताम्र पात्र ?
ताम्र-पात्र से संबंधित यह रहस्यमयी कथा एक दैत्य से जुड़ी हुई है। सृष्टि के प्रारम्भ में हीं ‘गुड़ाकेशʼʼ नाम का एक परम प्रतापी दैत्य भगवान विष्णु का परम भक्त था। भगवान विष्णु के चरणों में उसे अनन्य प्रीति थी। वह राक्षस बड़ा हीं मायावी था।
एकबार भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए ताँबे का शरीर धारण कर वह पूर्ण दृढता और विश्वास से चौदह हजार वर्षों तक कठिन तपस्या करता रहा। उसके विश्वास और श्रद्धा से युक्त तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उसे अपने पूर्ण रूप में दर्शन दिए।
शंख, चक्र, गदा, चतुर्बाहु और पीताम्बरधारी भगवान ने उसे दर्शन दिए, तो गुड़ाकेशʼʼ भगवान विष्णु के चरणों में दण्डवत् गिर पड़ा।
उसका सारा शरीर रोमाञ्चित हो उठा। आँखो से आँसु बहने लगे, हृदय पुलकित हो गया और गला रुंध गया। भगवान को प्रत्यक्ष देखकर वह अचम्भित-सा हो गया। फिर कुछ समय बाद उसने अपने-आप को सम्भाला और दोनों हाथ जोड़कर नतमस्तक हो भगवान विष्णु की स्तुति करने लगा।
उससे प्रसन्न होकर भगवान श्री हरि ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘हे गुड़ाकेशʼʼ तुम मन, वचन और कर्म से पूर्ण पवित्र हो चुके हो। जिस वस्तु को वाञ्छनीय समझो, जो चीज तुम्हे अच्छी लगती हो, माँग लो। मैं आज तुम्हें सबकुछ दे सकता हूँ।ʼ
अपने अराध्य श्री हरि का ऐसा वचन सुनकर गुड़ाकेश का मन गदगद् हो गया उसने हर्षित स्वर में कहा– प्रभु ! यदि आप मुझपर पूर्ण रूप से प्रसन्न हैं,
तो यहीं वर दीजिये कि आपके चरणों में सदैव मेरी अनन्य प्रीति बनी रहे और अंत भी हो, तो आपके हाथो हीं हो एवं मृत्यु के उपरान्त भी मेरी यह देह सदा आपके काम आये।
मेरी मृत्यु आपके हाथ से छुटे हुये चक्र से हीं हो और जब मैं मृत्यु को प्राप्त होऊँ तब मेरे माँस – मज्जा, अस्थियाँ सब ताँबे के रूप में हो जाये जो अत्यंत पवित्र हो।
आपकी सेवा में जो भोग लगाया जाय वह ताँबे के पात्र में हीं लगे। इस तरह मेरा शरीर मरने के पश्चात भी आपके हीं सेवाभाव के काम में आती रहेगी।ʼʼ
भगवान ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की और कहा, अहोऽ गुड़ाकेश ! तुम्हारा शरीर ताम्र का हीं है। यह ताम्र मुझे अत्यधिक प्रिय होगा। ‘
वैशाख शुक्ल द्वादशी को मेरा चक्र तुम्हारा वध करेगा और तब तुम सदैव के लिये मेरे परम्-धाम में चले आओगे।ʼʼ
ऐसा कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये और गुड़ाकेश ध्यान, भजन करता हुआ उस दिन की प्रतीक्षा करने लगा। बहुत उत्साह के साथ भगवान की पूजा करके वह कहने लगा;
मुञ्च मुञ्च प्रभो ! चक्रमपि वह्निसमप्रभम् ।
आत्मा मे नीयताम् शीघ्रं निकृत्याग्नि सर्वशः ।।
अर्थात्
हे प्रभो ! शीघ्रताशीघ्र अग्नि के समान ज्वल्यमान चक्र मुझपर छोड़ो और मेरे इस शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर शीघ्र हीं मेरी आत्मा को अपने चरणों में बुला लो।
नियत समय पर भगवान ने अपने चक्र से उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर उसे अपने धाम में बुला लिया । तभी से भगवान अपने प्यारे भक्त का शरीर होने के कारण ताँबे से बहुत प्रेम करते हैं और वैष्णव-जन बड़े प्रेम से ताँबे के पात्र में भगवान को अर्घ्य , नैवेद्य आदि समर्पित करते हैं ।
यही कारण है कि भगवान की पूजा में हमेशा तांबे के बर्तनों का उपयोग किया जाता है।
Worship in copper vessels: पूजा के लिए धातु को माना जाता है पवित्र
भारतीय पूजा पद्धति में धातुओं के बर्तन का बड़ा महत्व है। हर तरह की धातु अलग फल देती है और उसका अलग वैज्ञानिक कारण भी है। सोना, चांदी, तांबा इन तीनों धातुओं को पवित्र माना गया है। हिन्दू धर्म में ऐसा माना गया है कि ये धातुएं कभी अपवित्र नहीं होती है। पूजा में इन्ही धातुओं के यंत्र भी उपयोग में लाए जाते हैं क्योंकि इन से यंत्र को सिद्धि प्राप्त होती है।
लेकिन सोना, चांदी धातुएं महंगी है जबकि तांबा इन दोनों की तुलना में सस्ता होने के साथ ही मंगल की धातु मानी गई। माना जाता है कि तांबे के बर्तन का पानी पीने से खून साफ होता है। क्योंकि लोहा, स्टील और एल्यूमीनियम को अपवित्र धातु माना गया है तथा पूजा और धार्मिक क्रियाकलापों में इन धातुओं के बर्तनों के उपयोग की मनाही की गई है।